बज़्म’ऐ यार मे यहाँ हर सर नही होता
बेजान लकीरों मे मुकद्दर नही होता
औरों पे तो होता था दुवाओं का असर भी
अपने पे बालाओं का भी केहर नही होता
ज़ानो पे धर दिए हैं कुछ ज़हीन से शिकवे
होता था कभी गम अब मगर नही होता
भला है दर्द को मिली है जुबां और
वरना हर फिगार शक्स शायर नही होता
यूँ वक्त का हवाला देते हैं सारे लोग
मरते ही नही जैसे जो ज़हर नही होता
भुझते हुए चिराग ने बातें हाज़र किन
के सुकून सुपूर्त'ऐ KHaak से अक्सर नही होता
इस ज़िन्दगी के चेहरे ख़ुद मे आजीब हैं
फ़क़त दस्त’ऐ सबा मे बवंडर नही होता
अब वो लाख भी चाहें मैं बेवफा न कहूँगा
एक दीवार गिरने से फनाह घर नही होता
कुछ यूँ भी गफलतों मे गुज़री ज़िन्दगी
के मैकदों मे 'माह' अब बसर नही होता
Friday, December 5, 2008
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3 comments:
अब वो लाख भी चाहें मैं बेवफा न कहूँगा
एक दीवार गिरने से फनाह घर नही होता
बहुत खूब !
यूँ वक्त का हवाला देते हैं सारे लोग
मरते ही नही जैसे जो ज़हर नही होता !
kon kahta dunia me ab kuch nahi,
gar himmat ho to zahar bhi hai!!
bahut badhiya punnu.....
Bahut Achha likha hai Purnima ji ...
Bahutt khoob..
बुझते हुए चिराग ने बातें हाज़र किन
के सुकून सुपूर्त'ऐ ख़ाक से अक्सर नही होता..
Bahut badhiya .. :)
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