Thursday, April 16, 2009
के किसी से कोई भी बेहतर नहीं
है यकीं सब पर फ़क़त ख़ुद पर नहीं
ख़ुद को मैं पहचानता अक्सर नहीं
आदमी है आदमी सा पेश आ
ज़ंग करना जोफ है जौहर नहीं
गीली आँखें फिर बहा ले जाएँगी
के वफ़ा का अब वहां लंगर नहीं
घजनी को था ताब का इक बाद गुमा
पास उसके ताज था पर सर नहीं
हैं हवाओं की ये बुनियादें सही
पर अजाबों का इन में कोई डर नहीं
चाँद भी तनहा था उस दिन रो पडा
माना मिट्टी था मगर पत्थर नहीं
जिंदगी से सीखले कुछ तो हुनर
मौत से पहले तो ज़ाहिद मर नहीं
दर्द को हद से गुज़र जाने भी दे
दे दवा को आसरा अन्दर नहीं
के सफर में इसको अब तू पार कर
‘माह’ संग-ऐ-मील है रहबर नहीं
उसी को ले कर ये ग़ज़ल कही है
उम्मीद करती हूँ
आप सब को पसंद आयेगी
सभी को दिख गए आजार मेरे
के अब अच्छे नही आसार मेरे
कहानी और अब दिलचस्प होगी
वफ़ा जो कर गए गद्दार मेरे
यहीं सब छोड़ के जन पढेगा
तमाशे हो गए बेकार मेरे
अदावत रंग अब लेन लगी है
बने हैं यार कुछ अघ्यार मेरे
नदी इस बार फिर गुज़री है हद से
लगे हैं डूबने घर बार मेरे
यहीं बस सोच के मैं रुक गया हूँ
"अभी कुछ लोग है उस पार मेरे"
नज़र क्यूँ आते हैं आंसू सभी के
जनाजे क्या हुए तैयार मेरे…???
हटा के जिस्म से साँसों का चोल
जला आए मुझे मुख्तार मेरे
फलक पे दर्ज थे सारे फ़साने
सितारे ‘माह’ थे बेजार मेरे
Saturday, December 27, 2008
मैं कौन हूँ
मैं कौन हूँ
अदृश्य हूँ, अभेद हूँ
हृदय में एक भय सी हूँ
मैं कौन हूँ
मैं मौन हूँ
मैं जल तरंग सी
वायु मे उमंग सी
कभी समय का घाट हूँ
खबी स्वयम पे आघात हूँ
जीवन के विपरीत मैं
अनादी की रीत मैं
मुक्ति का स्वांग हूँ
मदिरा हूँ, भाँग हूँ
समर्थ हूँ, शाशाक्त हूँ
पर हौसलों से पस्त हूँ
विधाता का अस्त्र हूँ
निर्माण से शाश्स्त्र हूँ
पराजय से मैं पराक्रमी
बल से मैं ध्वस्त हूँ
ज्ञान के आधीन हूँ
मान से महीन हूँ
मैं द्रव्य में
पवन मे मैं
मिटटी मे हूँ
अगन मे मैं
मोह पे विराम हूँ
मीरा का श्याम हूँ
मैं आदि से अंत में
दुष्ट से मैं संत में
इस द्वार से उस द्वार के
मध्य का मैं मार्ग हूँ
मुड़ना अब सम्भव नही
चलना इतना असंभव नही
स्वांस की निशा में मैं
मोक्ष्य की दिशा में मैं
अनंत यात्रा के आरंभ का
मैं शुभ आरंभ हूँ
मैं कौन हूँ
जो मौन हूँ…….
Friday, December 5, 2008
बज़्म’ऐ यार मे यहाँ हर सर नही होता
बेजान लकीरों मे मुकद्दर नही होता
औरों पे तो होता था दुवाओं का असर भी
अपने पे बालाओं का भी केहर नही होता
ज़ानो पे धर दिए हैं कुछ ज़हीन से शिकवे
होता था कभी गम अब मगर नही होता
भला है दर्द को मिली है जुबां और
वरना हर फिगार शक्स शायर नही होता
यूँ वक्त का हवाला देते हैं सारे लोग
मरते ही नही जैसे जो ज़हर नही होता
भुझते हुए चिराग ने बातें हाज़र किन
के सुकून सुपूर्त'ऐ KHaak से अक्सर नही होता
इस ज़िन्दगी के चेहरे ख़ुद मे आजीब हैं
फ़क़त दस्त’ऐ सबा मे बवंडर नही होता
अब वो लाख भी चाहें मैं बेवफा न कहूँगा
एक दीवार गिरने से फनाह घर नही होता
कुछ यूँ भी गफलतों मे गुज़री ज़िन्दगी
के मैकदों मे 'माह' अब बसर नही होता
Saturday, November 22, 2008
कुछ शेर
"माह को चाँद भी मिला, तो मिला तकल्लुस मे
अपना है कह नही सकते, और पराया भी नही होता"
"मैं चौंका जब वो अचानक मिल
सोचा न था उसका चेहरा भी इतना बदल जाएगा"
"उसको मिले तो एक मुद्दत हुई है 'माह'
पर अभी बिन कहे वो मेरा हाल जान जाएगा"
"तारीफ भी यूँ करते हैं जैसे नाराज़ है ख़ुद से
और माह को खु नही है दाद पे सर झुकने की"
'माह को चाँद मिला भी , तो मिला तकल्लुस मे
अपना है केह नही सकते, और पराया भी नही होता"
Thursday, September 25, 2008
पलकों की चौखट ......
यादों की चादर से लिपटा ज़ख्म उभारा करता है
सब्र के कंधों पर सर रख कर उम्र गुज़ारा करता है
छोड़ के अब जागीर’ऐ वफ़ा वो गम से गुज़ारा करता है
ख़ुद ही जुदा हो कर हमसे हमको पुकारा करता है
वक्त की सोहबत मे रेह कर वो वक्त सरीखा लगता है
आँखों मे उम्मीदें धर कर पल पल मारा करता है
जाने कौन मसीहा है जो मुझको उबारा करता है
Monday, September 22, 2008
कुछ आज़ाद शेर.....
मेरी मिट्टी मे नही था बेवफा होना
मेरे घर की तासीर कड़वी ही सही, मगर
मैंने सिखा नही था मिश्री से ज़हर होना
ढूंढते कोई और बहाना दूर होने का
मुझे तो आता ही नही था तुझसे ख़फा होना
ये वक्त का तकाज़ा था या तादीर मेरी
पानी मे लिखा था मेरा धुंवा होना
अब मैं मैखाने के जानिब ही जाऊंगा
बहुत हो चुका अब मेरा ख़ुदा होना
खेल ही खेल मे हालात बदल जाएंगे
हमको मालूम न था यूँ दाना होना
दिल की हसरत निगाहों से कही थी हमने
उल्फत ने जाना नही था अभी ज़ुबां होना
Friday, September 19, 2008
हम दोस्त क्या बनायेंगे
फुर्सत नही अब काम से हम दोस्त क्या बनायेंगे
मिलना भी हो जाएगा गर कभी राह मे मिल जायेंगे
मिल के ना हांसिल होगा उन्हें कुछ ना हमही कुछ पाएंगे
बस गीली ऑंखें लिए फिर से दोनों जुदा हो जायेंगे
हम भीकभी याद आयेंगे वो भी कभी रुलाएं
दो-चार ज़स्ब दरमियाँ अगर कहीं रेह जायेंगे
ये पुख्ता सलाखें वक्त की रिहा होने देगी नही
हर लम्हा अब काश! काश! कर के हम बिताएंगे
दिन गुज़ारा किए हम जिनका तसवुर लिए
शब् तलक वो नुरानी चेहरे चाँद से हो जायेंगे