मेरी पलकों में फंसा अब्र पिघल रहा है
मैं कहाँ रो रही हूँ, वो निकल रहा है
मिलते मिलते दर्द भी मुझसे इश्क कर बैठा
सबकी तरह देखो अब वो भी बदल रहा है
इश्क का नाम ना लो के इसने हरदम किया फरेब
सुन के सोया हुआ ज़ख्म भी मचल रहा है
गुनगुना रहा है रकीब महफिल में जिसे
वो शक्स कभी मेरी ग़ज़ल रहा है
कैसे दिखने लगी अब सारी खामियां उसकी
जो इंसान उसके लिए कभी मुकम्मल रहा है
देखा है वक्त ने भी शक्स बदलते हुए
अफताब का ईमान भी सब में ढल रहा है
सुना है दर्द-ऐ-मर्ग से बड़ी कोई कोफ्त नही
और यह एहसास मुझ में मुसलसल रहा है
खतों में ज़प्त रब्त को दम तोड़ता देख कर
सदमे से मुरक्कब काग़ज़ पैर फिसल रहा है
याद कर क उसे ‘माह’ हमेशा गम ही मिले
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