कतरा बन के अटका हूँ तेरी पलकों पर
देख ना नज़र झुका के गिर जाऊंगा
तेरे तस्वुर में ही बे_हाल हूँ इतना
मिलने न बुला खुशी से मर जाऊंगा
यह ज़ख्म गहरे हैं तेरी निगाहों से
ज़रा ना छु कहीं दर्द ज़हीर कर जाऊंगा
उम्मीद में जुन्झा हूँ अब तक दैर्य से
जो देख ले तू एक नज़र डूबने से तर जाऊंगा
ढूँढने निकला था गैर मुल्क में खुशी
अब वतन परस्त दिल पूछे कब घर जाऊंगा
1 comment:
पूर्णिमा जी...बहुत स्तरीय रचनायें हैं आपकी।
Post a Comment