Saturday, September 6, 2008

कहाँ जाता मैं


तुझसे बिछ्ढ़ कर आखिर कहाँ जाता मैं

हर एक शै में तुझे नज़र आता मैं


मेरी हकीक़त ही मेरा फरेब है रकीब

वरना ये राज़ किसी को बताता मैं


तेरी गफ़लत मे ये गुनाह कर बैठा

कभी ज़िन्दगी को इतना ना सताता मैं


वो था बुत संग और मैं बेबस आईना

उसके साथ रेह कर भी टूट जाता मैं


जिसका नाम ही काफी था मोहब्बत के लिए

उसे अदावत आखिर कैसे निभाता मैं



जो शक्स मेरी जिन्दगी हुआ करता था कभी

उसे मौत से पहले कैसे भूलता मैं


देखना देगा वक्त एक दिन गवाही मेरी

माह यूँही नही हर लम्हा चुराता मैं




2 comments:

Yogi said...

sach kahu
koi bahut zyada maza nahin aya, mere ko ye wali poem padh kar...

Smart Indian said...

तुझसे बिछ्ढ़ कर आखिर कहाँ जाता मैं
हर एक शै में तुझे नज़र आता मैं

बहुत सुंदर!