तुझसे बिछ्ढ़ कर आखिर कहाँ जाता मैं
हर एक शै में तुझे नज़र आता मैं
मेरी हकीक़त ही मेरा फरेब है रकीब
वरना ये राज़ किसी को न बताता मैं
तेरी गफ़लत मे ये गुनाह कर बैठा
कभी ज़िन्दगी को इतना ना सताता मैं
वो था बुत’ऐ संग और मैं बेबस आईना
उसके साथ रेह कर भी टूट जाता मैं
जिसका नाम ही काफी था मोहब्बत के लिए
उसे अदावत आखिर कैसे निभाता मैं
जो शक्स मेरी जिन्दगी हुआ करता था कभी
उसे मौत से पहले कैसे भूलता मैं
देखना देगा वक्त एक दिन गवाही मेरी
माह यूँही नही हर लम्हा चुराता मैं
2 comments:
sach kahu
koi bahut zyada maza nahin aya, mere ko ye wali poem padh kar...
तुझसे बिछ्ढ़ कर आखिर कहाँ जाता मैं
हर एक शै में तुझे नज़र आता मैं
बहुत सुंदर!
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