Monday, September 1, 2008

कतरा बन के अटका हूँ तेरी पलकों पर

देख ना नज़र झुका के गिर जाऊंगा



तेरे तस्वुर में ही बे_हाल हूँ इतना

मिलने न बुला खुशी से मर जाऊंगा





यह ज़ख्म गहरे हैं तेरी निगाहों से

ज़रा ना छु कहीं दर्द ज़हीर कर जाऊंगा





उम्मीद में जुन्झा हूँ अब तक दैर्य से

जो देख ले तू एक नज़र डूबने से तर जाऊंगा





ढूँढने निकला था गैर मुल्क में खुशी

अब वतन परस्त दिल पूछे कब घर जाऊंगा





1 comment:

aarsee said...

पूर्णिमा जी...बहुत स्तरीय रचनायें हैं आपकी।