Sunday, August 31, 2008

मांगी थी तस्वीर मेरी


मांगी है उसने तस्वीर मेरी निशानी की तरह

रह गया हूँ मैं सिर्फ़ भूली कहानी की तरह



मेरे तजुर्बे मेरे कातिल से अगल निकले

आया वो था दौर’ऐ उम्र में जवानी की तरह



ना भुला कभी ना कभी बुलाया उसको

उमीद की थी उसकी बहर में बादबानी की तरह



जाने का अंदाज़ भी तकलुफाना था बड़ा

बह गया चस्म से खामोश पानी की तरह





Mangi hai usne tasveer meri nishani ki tarah

Reh gaya hun main srif bhuli kahini ki tarah



Mere tazurbe mere qatil se agal nikale

Aaya wo tha daur’e umr mei jawani ki tarah



Na bhula kabhi na kabhi bulaya usko

Umid ki thi uski behr mei badbani ki tarah



Jane ka andaaz bhi takalufana tha bada

Beh gaya chasm se khamosh paani ki tarah





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आओ जिन्दगी से एक सौदा करें
फिर कुछ खवाब रौन्दा करें


ख़ाली कोख है एहसास की
एक गम ही चलो पैदा करें


मौत की शक्ल है शराब सी
कैसे से लब' जिन्दगी से जुदा करें


हम मुफलिसी में जिया करें
हम मुफलिसी में मारा करें
अब तो बता दे जिन्दगी
हम किसका हक अदा करे .........

मेरे पास से भीढ़ हटा रखी है

मेरी तस्वीर से दिवार लगा रखी है

घबराता है के घर उसका डगमगा जाएगा

सो मैकदे में महफिलें सजा रखी है..

निशान अश्कों का छुपाने के लिए..

रोज़ नई रेशमी चादर बिछा रखी है..

मुझे भूलने का दावा करता है सरे आम

शेहर में हर शक्स से मेरी बात बता रखी है

आखों में उसकी चमकता कुछ तोह है

हिज्र की तारों भरी रातें छुपा रखी है…॥



तू सुबह की धूप

कोई आह लब पे आकर रुक गई
कोई कतरा आँखों में उतर गया
तेरी याद अभी जैसे सुबह की धूप सी...
मेरे दिल दरीचों में फिसल गई...

बिसाल--आरजू मचल के थम गई
कोई ओस जैसे दिन की उमर से पिघल गई
तू जैसे बन खुशबू कचनार की
मेरी जिस्म--रूह से गुज़र गई............








आब भी नही बदला वो

दराज़ में खोजते हुए कुछ
एक कलम मिली पुरानी सी
सुखी स्याही से भी
मानो लिख रही हो कहानी सी


कुछ धुल से सनी किताबों में
कोई आज भी बिखरा पढ़ा है

पुरानी आदत थी उसकी
कभी कुछ संभल कर नही रखता था

आज भी आदत गई नही है
मैं तभी समेट थी उसे
आज भी किताबें पोंछ कर
वापस रख रहीं हूँ
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Saturday, August 30, 2008


जिक्र यह आज पीरों में है

कुछ तो लिखा लकीरों है



यूँही नही है दिल घायल हुआ

बात तो कुछ नज़र तीरों में है



राह’ सुकून अब खोजे कहाँ

येही फिक्र अब फ़कीरों में है



तेरा हर लफ्ज़ है मुकमल ग़ज़ल

तुझ सी बात कई मीरों में है




उन के मुस्कुराने की सी अदा

यकीनन सौ हीरों में है




माह अब खुशी से मर जाऊंगा मैं

मेरा नाम उनके तक्सीरों में है



तकसीरों =abbreviations


तेरे पेश बज्म एक नज़्म है

शिकायत की यूँ भी एक रस्म है



अज़ाब दिल मैं तुझसे क्या कहूँ

मेरा हाल पूछना तेरी एक रस्म है



तू जब भी मिला , मिला हिज़ाब में

क्या मुलाकात की यह भी एक रस्म है



कोफ्त नक़ाब था पहने तेरा

मैं समझा यह इश्क की एक रस्म है



कौन चाहेगा माह मेरे बाद तुझे

यहाँ ज़फा भी उल्फत की एक रस्म है











डूबा तो इल्म हुआ गहराई का

बस साथ था धोखा परछाई का



मेरी हस्ती मुझसे मुकम्मल थी

क्यूँ धर गया जहाँ तन्हाई का



चलो यूँही मेरा वजूद तो है

हर लब पे है किस्सा मेरी रुसवाई का



ज़िक्र ’ऐ जुदाई भी जिन्हें गवारा न थी

कोई बता दे सबब उनकी बेवफाई का



वो शुर्ख शाम का पैमाना

सूरज गलते रंग बदलता है

मैं उसको देख पिघलती हूँ

वोह मुझको देख ढलता है




उफक पे छूता है बहर फलक

फरेब’ऐ नज़र क्या छलती है

मैं दूर चाँद से चलती हूँ

वो साथ मेरे क्यूँ चलता है




वोह थकी शम्मा ’ऐ रिजा होगी

जो गैर की महफिल में बुझती रही

यह दिल शायद कोयला है कोई

जो एक उम्र से यूँ ही सुलगता है



मैं भूल गई उसे माज़ी को

जो हर नफस में मेरी रहता था

वोह अब क्या याद आएगा मुझे

आँखों से हर पल जो बहता है






कई उम्मीदें

रोज़ कई उम्मीदें दौड़ती रहती है सड़कों पर

कभी दब जाती हैं बसों की भीड़ में

कभी धंसीं हैं ट्रेनों की रीढ़ में

कुछ खवाब बर्फ के पिघल गए धुप में

हम ख़ुद ही खुदको अक्सर मिले नए रूप में

हाँथ के जालों में हैं ढूंढते तागे किस्मत के

बंधते है मंदिरों में कुछ धागे हसरत के

उन धागों की उम्र जाने कितनी हो

इंतज़ार में चलो जिन्दगी तो गुज़र जायेगी

कच्चे पक्के ख़वाब अब आँखों में सेंक लेंगे ...

कुछ नही तो उम्मीदों को ही सहेज लेंगे ....







ज़ख्म कुरेद कर दर्द बो रहा है

वक्त बेबसी में मुझे ढो रहा है





फसलें कोफ्त की अब पाक गई हैं शायद

तकीए में मुह छुपा कर कोई रो रहा है





कितनी शब्’ऐ क़यामत जली उन नीगाहों में

ज़रा अँधेरा करदो अब वो सो रहा है





देखते देखते दुनिया कितनी बदल गई

उस उम्र का तजुर्बा इस उम्र में खो रहा है





दुवाएं मस्ज्जिदों में गुम हो रहीं हैं

अब होने भी दो ‘माह’ जो हो रहा है















मुझे जिनका जिन्दगी भर ख़याल था

साथ जिन्दगी भर रहूँगा मैं

यह एक शक्स का ख़याल था

वो मेरा खुदा बनते बनते रह गया

बस एक ज़स्ब का सवाल था



मेरी रूह ही अक्सर गीरीयाँ करे

मेरा चस्म तो कब से बे_ख्याल था

मेरी उम्मीदों ने मुझको छल लीया

कह के वो जेहन का बवाल था



कई हादसे यूँही होते रहे,

कई लम्हे सदीयों रोते रहे

हाय!!! मुझे हयात भी नही मीली

कभी मुझे खुल्द का ख़याल था



शीकवों की आज है एह्मीयत कहाँ

वो दौर था जब मलाल था

कर ना जब थी खीज़ा गई

कभी ऐसा भी एक बे_जार साल था




बरफ अपने ही आब में पीघल गई

हवास इंसानीयत को नीगल गई

जीस ज़स्ब ने था मुझे जिन्दा कीया

वो एक हसीं फरेब का जाल था



मुझे जिन्दगी ने हैरान किया

मेरे चश्म को परेशां किया

मुझे शिकायत की भी ताक़त थी

मेरा जिस्त इस कदर बे_हाल था



भला हुआ जो मिला भरम टुटा हुआ

मुझे बेकार उसकी नफरत का मलाल था

वोह मेरी मौत पर भी आए नही

मुझे जिनका जिन्दगी भर ख़याल था







इस मोहब्बत का भरम अभी रहने दे

यह इश्क का ग़म हमे भी सहने दे



मैं बे_खुदी में ही आज ख़ुद में हूँ

न रोक आज जो कहना है मुझे कहने दे



यह बरसात भी साथ खीज़ा लेके आई है

मगर मुझे खुश्क हालत में रहने दे



चाहना मुझको, उनकी कोई मज़बूरी होगी

जीस कीनारे से भी वो बहता है उसे बहने दे



माह अब तुझसे क्या करूँ मैं तर्क’ऐ वफ़ा

अब जो भी कहता है जमाना उसे कहने दे

.
.
.
.
कभी
कभी बारीश के बाद
आसमान को सुर्ख होते देखा है
जैसे बहुत रोने बाद
अक्सर ऑंखें हो जाती हैं
इस आसमा को तो
घम छुपाना भी नही आता ......




तू हुआ गैर


अब तो तू भी हुआ गैर जुस्तजू के लिए
जिक्र
अब मैं कीस का करूँ गुफ्तगू के लिए



खुदा
तो मेरी तरफ़ देखता भी नही
किस
को ढूंढें नज़र अब वजू के लिए



यूँ मुझे बेहस्रत कर दिया उसने
के
अदावत भी नही रही अदू के लिए



तेरे बाद मैकदे में लुत्फ़ आया है
मैकशी
ही रही है अब खु के लिए




माह
एस इश्क की तासीर का मज़ा लेना
इसकी
चाक में गुंजाईश नही रफू के लिए





Ab toh Tu bhi hua gair zustaju k liye

Zikr ab mai kis ka karun guftagu k liye




Khuda to meri taraf dekhta bhi nahi

Kis ko dhoondhe nazar waju k liye




Yun mujhe be_hasrat kar diya usne

Key adaawat bhi nahi rahi adu k liye




Tere baad maikade mei hi lutf aaya hai

Mai_kashi hi rahi hai ab khu k liye




Maah es ishq ki tasiir ka na maza lena

Eski chaak mei gunjaish nahi rafu k liye


वों मुस्कुराएँ तो हांसिल' ग़ज़ल हो जाए
वो
शर्मायें तो शेर मुकम्मल हो जाए


नज़र झुका कर जो वो कर लें कुबूल मुझे
तो
ये बेज़ार ख़ार भी कमल हो जाए


वो
मांगता हैं अक्सर उधार दर्द मेरा
एस
फिराक में की वो भी ग़ज़ल हो जाए


जो
बचाता रहा आग से दामन मेरा है
खुदा करे के वो आब भी अज़ल हो जाए


माह
कर मुकाबिला इतना इन लफ्जों से
मुश्किल
खामोशी से ही शायद हल हो जाए




Wo muskurayen toh hasiil’e gazal ho jaye

Wo sharmayen to sher mukammal ho jaye



Nazar jhuka kar jo wo karle kubul mujhe

Toh Yeh be_zaar khaar bhi kamal ho jaye



Wo Mangta hai aksar udhar dard mera

Es Firaaq mei k wo bhi gazal ho jaye



Jo bachta raha aag se daaman mera


Khuda kare vo aab bhi azal ho jaye



Maah na kar muqabiila itna in lafzon se

Mushkil khamoshi se hi shayad hal ho jaye

Friday, August 29, 2008

कुर्बान है ज़ीस्त कायनात क्या

है खाक-ऐ-बशर की बिसात क्या

चलो दर्द बन गया सुखन

वरना आह की है औकात क्या

बैठा खुदा बाँट कर जहाँ

एस बशर की आखीर है जात क्या

एक ज़स्ब था जो धुवां हुआ

एस में शर्म की है बात क्या

वो आए पहलु में शब् ढले

होगी हसीं अब और रात क्या



मेरी रूह मुझ पर शुभा करे

बे_खुदी ने भेज दी सुजात क्या

माह तू इतना रोया क्यूँ करे

अश्क समझेगी बे_हीस हयात क्या