Saturday, August 30, 2008


वो शुर्ख शाम का पैमाना

सूरज गलते रंग बदलता है

मैं उसको देख पिघलती हूँ

वोह मुझको देख ढलता है




उफक पे छूता है बहर फलक

फरेब’ऐ नज़र क्या छलती है

मैं दूर चाँद से चलती हूँ

वो साथ मेरे क्यूँ चलता है




वोह थकी शम्मा ’ऐ रिजा होगी

जो गैर की महफिल में बुझती रही

यह दिल शायद कोयला है कोई

जो एक उम्र से यूँ ही सुलगता है



मैं भूल गई उसे माज़ी को

जो हर नफस में मेरी रहता था

वोह अब क्या याद आएगा मुझे

आँखों से हर पल जो बहता है






1 comment:

Aashish said...

Aur Kya kahun Main....

Manzilon Ki Har sadak aapke naam...
Mohabbat ki har adaa aapke naam..
Pyaar bhari har nigaah aapke naam..
Aur aaj labon par aane wali
har dua aapke naam....

Tum Chamkte raho hamesha aise hi...