रोज़ कई उम्मीदें दौड़ती रहती है सड़कों पर
कभी दब जाती हैं बसों की भीड़ में
कभी धंसीं हैं ट्रेनों की रीढ़ में
कुछ खवाब बर्फ के पिघल गए धुप में
हम ख़ुद ही खुदको अक्सर मिले नए रूप में
हाँथ के जालों में हैं ढूंढते तागे किस्मत के
बंधते है मंदिरों में कुछ धागे हसरत के
उन धागों की उम्र जाने कितनी हो
इंतज़ार में चलो जिन्दगी तो गुज़र जायेगी
कच्चे पक्के ख़वाब अब आँखों में सेंक लेंगे ...
कुछ नही तो उम्मीदों को ही सहेज लेंगे ....
1 comment:
very impressive style of urs,,depth is there height is there..thanks for provoding such a wonderful poetry
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