Saturday, August 30, 2008

कई उम्मीदें

रोज़ कई उम्मीदें दौड़ती रहती है सड़कों पर

कभी दब जाती हैं बसों की भीड़ में

कभी धंसीं हैं ट्रेनों की रीढ़ में

कुछ खवाब बर्फ के पिघल गए धुप में

हम ख़ुद ही खुदको अक्सर मिले नए रूप में

हाँथ के जालों में हैं ढूंढते तागे किस्मत के

बंधते है मंदिरों में कुछ धागे हसरत के

उन धागों की उम्र जाने कितनी हो

इंतज़ार में चलो जिन्दगी तो गुज़र जायेगी

कच्चे पक्के ख़वाब अब आँखों में सेंक लेंगे ...

कुछ नही तो उम्मीदों को ही सहेज लेंगे ....



1 comment:

kabira said...

very impressive style of urs,,depth is there height is there..thanks for provoding such a wonderful poetry