Thursday, August 28, 2008






तेरे ख्यालों में भटकते हुए

यूँही एक रोज़, ख़ुद से जा मिली

बस खामोश एक सवालिया नज़र थी

हमारे दरमियाँ ,

जैसे कोई पुराना यार अचानक

एक रोज़ मिल जाए राह में

और मीठे लहजों में,

भूल जाने की शीकायत करे

और हम बस बहाने बुनते रहें


बड़ी देर क बाद उसने पुछा

“कैसी हो?”

यह लफ्ज़ नश्तर की तरह,

धंस गए सीने में

यूँ लगा किसीने

घाव पे हाँथ धर दिया हो

मै ला_जवाब थी

उसने मुसकुराते हुए कहा

“तुम तो भूल गई होगी मुझे?”

जब बाँध की दिवाओं में एक छेद

हो जाए

तोह दरीया जादा देर तक

अड़ता नही

दीवारें टूट जाती हैं…

पानी बह निकलता है

उसने मेरा हाँथ पकड़ कर खा

“क्यों मायूस हो?”

“मैंने तो कभी कुछ नही कहा?”

“हर लम्हा साथ रही,

फिर भी तुम बदल गई”

जब मुझे भूल गई

तोह उसे भी भूल ही जोगी

अचानक किसी ने आवाज़ दी

और मैं चौंक गई

इस बार ख्यालों में मैंने

ख़ुद को पाया था

मेरी रूह ने पुछा मुझसे,

“कहा हो?”

“आज कल मिलती नही मुझसे, परेशान हो”

“या कोई और आगया है जिन्दगी में”

मैं हैरान थी, सच मुझे ख़ुद से

मिले अरसे हो गए थे

क्या ढुंढ रही थी आज तक

किन सायों के पीछे भटक रही
थी

मुझसे ज्यादा मायूस मेरी रूह थी

हर लम्हा साथ रहने वाली शै को

मैं भूल गई थी

किस के लीये ? क्यूं?

अब भी अपनी गुमनामियों में गूम हूँ

जाने करार कब तक मिले……॥








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