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ज़ख्म कुरेद कर दर्द बो रहा है
वक्त बेबसी में मुझे ढो रहा है
फसलें कोफ्त की अब पाक गई हैं शायद
तकीए में मुह छुपा कर कोई रो रहा है
कितनी शब्’ऐ क़यामत जली उन नीगाहों में
ज़रा अँधेरा करदो अब वो सो रहा है
देखते देखते दुनिया कितनी बदल गई
उस उम्र का तजुर्बा इस उम्र में खो रहा है
दुवाएं मस्ज्जिदों में गुम हो रहीं हैं
अब होने भी दो ‘माह’ जो हो रहा है
1 comment:
Bahut khoob!!
Badhia !!
But meri urdu itni achhi nahin hai..
is liye aapki sari poems ka mazaa nahin le paaunga :)
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