Saturday, August 30, 2008





ज़ख्म कुरेद कर दर्द बो रहा है

वक्त बेबसी में मुझे ढो रहा है





फसलें कोफ्त की अब पाक गई हैं शायद

तकीए में मुह छुपा कर कोई रो रहा है





कितनी शब्’ऐ क़यामत जली उन नीगाहों में

ज़रा अँधेरा करदो अब वो सो रहा है





देखते देखते दुनिया कितनी बदल गई

उस उम्र का तजुर्बा इस उम्र में खो रहा है





दुवाएं मस्ज्जिदों में गुम हो रहीं हैं

अब होने भी दो ‘माह’ जो हो रहा है















1 comment:

Yogi said...

Bahut khoob!!

Badhia !!
But meri urdu itni achhi nahin hai..
is liye aapki sari poems ka mazaa nahin le paaunga :)