सीयाह रात का मटमैला मोटी
एक मुद्दत से भटका है
कभी मेरे आँगन में आ कर
यूँही पेढ़ पे अटका है
बदल से भींगा है शायद
कतरा कतरा गलत है
बीरेह की आंच से वोह भी
ज़र्रा ज़र्रा जलता है
कपास के फूलों सा कोई
आवारा उढ़ता रहता है
क्यूँ बोझल कर मन को
मेरी आंख से बहता है
आज फलक पर तनके जुगनू
चाँद अकेले न पढ़ जाए
रात है अंधी दूर सवेरा
कहीं तनहा ना डर जाए
सदीयों से चलता वक्त
आज की शब् फुर्सत लेगा
मुझसे मिलने आया गम
जाने कब रुखसत लेगा
हीस्सा साँसों का बढे तो
सागर भर लूँ आँखों में
खामोशी ही सबकी दावा है
कहाँ है लुत्फ़ बातों में
कीतनी बातें हैं जीनको हम
ख़ुद से भी छुपाते हैं
सच में है मोहब्बत हमसे
या वो फीर सीर्फ जताते हैं
रात के सयाओं का असर है
हम चाँद से उन तक जा पहुंचे
अपने दामन में रोका है
क कोई घम उन तक ना पहुंचे
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