Tuesday, August 19, 2008

सीयाह रात का मटमैला मोटी

एक मुद्दत से भटका है

कभी मेरे आँगन में कर

यूँही पेढ़ पे अटका है

बदल से भींगा है शायद

कतरा कतरा गलत है

बीरेह की आंच से वोह भी

ज़र्रा ज़र्रा जलता है

कपास के फूलों सा कोई

आवारा उढ़ता रहता है

क्यूँ बोझल कर मन को

मेरी आंख से बहता है

आज फलक पर तनके जुगनू

चाँद अकेले पढ़ जाए

रात है अंधी दूर सवेरा

कहीं तनहा ना डर जाए

सदीयों से चलता वक्त

आज की शब् फुर्सत लेगा

मुझसे मिलने आया गम

जाने कब रुखसत लेगा

हीस्सा साँसों का बढे तो

सागर भर लूँ आँखों में

खामोशी ही सबकी दावा है

कहाँ है लुत्फ़ बातों में

कीतनी बातें हैं जीनको हम

ख़ुद से भी छुपाते हैं

सच में है मोहब्बत हमसे

या वो फीर सीर्फ जताते हैं

रात के सयाओं का असर है

हम चाँद से उन तक जा पहुंचे

अपने दामन में रोका है

कोई घम उन तक ना पहुंचे

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