Sunday, August 31, 2008

आब भी नही बदला वो

दराज़ में खोजते हुए कुछ
एक कलम मिली पुरानी सी
सुखी स्याही से भी
मानो लिख रही हो कहानी सी


कुछ धुल से सनी किताबों में
कोई आज भी बिखरा पढ़ा है

पुरानी आदत थी उसकी
कभी कुछ संभल कर नही रखता था

आज भी आदत गई नही है
मैं तभी समेट थी उसे
आज भी किताबें पोंछ कर
वापस रख रहीं हूँ
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3 comments:

Smart Indian said...

Very good!

Yogi said...

first four lines are awesome

Last 4 lines are equally bad...
no rhyme, nothing.... just written like a sentence not like poem...

and u'll need to take care of ur spelling mistakes....

make sure that spelling mistakes are not in ur new poems....

Unknown said...

as usual mind blowing,,,,,u r the best